तुम कहते हो दिसंबर खुदगर्ज़ है…

तुम कहते हो दिसंबर खुदगर्ज़ है
दिन और साल, दोनो चुरा ले जाता है।
इस बार फिर सर्दी की खटखटाहट सुन रही हूँ
बांवरे दिसंबर की आहट सुन रही हूँ।
देखी होगी तुमने भी उसकी खुदगर्ज़ी;
सिहरन भरी रातों को सिगड़ी का साथी बना देता है
कभी प्यार को शाल की तरह ओढ़ा देता है
तो कभी, उसे चाय की प्याली बना कर मेरे हाथों में थमा देता है।
बंद खिड़कियों को रात का सन्नाटा सुनाता है,
दिसंबर ही तो खुद से तुम्हे भी मिलवाता है।
क्योंकि सर्द शामों का ही तो यह उसूल है, अपनी कैफियत पूछने का निराला सा एक दस्तूर है।
कोहरे की चादर को भींचती हुई
सूरज की उस किरण को तो देखो
जो धरती से प्रेम रचाती है,
न जाने कितनी दूर से वो उसे मिलने आती है।
मायूसी के लम्हो में
शीत की प्रीत जगाता है,
सर्दी का मौसम तो यादों की तपिश से ही कट जाता है।

फिर क्यों तुम कहते हो कि दिसंबर खुदगर्ज़ है?

-सोनिया डोगरा

(All rights reserved)

Image source:pixabay


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