तो क्या मिल जाते हैं चुप रहने वाली औरतों को सौ सुख?

कहते हैं वो घर सुखी होते हैं
जहां औरतें कम बोलती हैं,
उनकी चुप्पी की बुनियाद
पर खड़े होते हैं
खुशियों के शीश महल,

भर जाती हैं उनकी झोलियाँ
हज़ारों सुखों से।
एक चुप पर
वो कहते हैं ना
सौ सुख वारते हैं…
और ताउम्र की चुप्पी पर?

गुज़र जाती है
उनकी ज़िंदगी
सिर्फ एक उसूल पर,
वो जानती हैं
बोलने के गुनाहों के
माफीनामे नही बनते।

कटघरे बनते हैं
और ढूंढ ही लेती हैं
उठने वाली उंगलियां
अपने अपने अभियुक्त।

तो क्या मिल जाते हैं
चुप रहने वाली औरतों को
सौ सुख?

मैंने देखा है
दबी आवाज़ों को
घुटते हुए
जैसे मसल दिए हों
कई फूल
जो महल की सजावट के लिए
रास्ते में बिछाये थे।

फिर भी
सब कहते हैं
चुप रहने वाली औरतों को
मिल ही जाते हैं
सौ सुख।

घरौंदों में उनके
बिगुल नही बजते
हंसी के ठहाके लगते हैं बस,
मैंने देखा है
इन ठहाकों के शोर में
उनकी रूह की आवाज़ को
घटते हुए।

उनके दिल भी बहुत बड़े होते हैं,
कई अनकही बातें छुपाते हैं
रातों की सिसकियों के लिए भी
कोना एक बनाते हैं।

फिर भी
सब कहते हैं
चुप रहने वाली औरतों को
मिल ही जाते हैं
सौ सुख।

मैं भी चाहती हूँ
चुप रहने वाली औरतों को
मिल जायें
सौ सुख…


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11 Replies to “तो क्या मिल जाते हैं चुप रहने वाली औरतों को सौ सुख?”

  1. बहुत ही बेहतरीन कविता | मार्मिक भी | 
    “उनके दिल भी बहुत बड़े होते हैं,
    कई अनकही बातें छुपाते हैं
    रातों की सिसकियों के लिए भी
    कोना एक बनाते हैं।” 
    काफी हद तक आपकी बातों से सहमत होते हुवे भी मेरा मानना है कि  समय परिवर्तन ला रहा है इन  बातों में |   

    हाँ!
    ज़रूर वो घर सुखी होते हैं 
    जहाँ औरतें कम बोलती हैं 
    पर कहानी में ट्विस्ट है 
    कम बोलती हैं पर सुदृढ़ बोलती हैं 
    ये वो हैं जिन्होंने जान लिया है 
    उनके मौन को भी संवाद कहा जाना है 
    उनके आँसुओं का अनुवाद हो जाना  है 
    उनकी मुस्कान पर विवाद हो जाना है 
    फिर क्यों गूँगा बन जीवन बिताना है 
    इन्हें शायद सौ सुख तो ना मिलें 
    एक सुख तो यह भी है 
    “अपनी बात कह पाना!” 

    Liked by 1 person

    1. आपके इस कमेंट को पढ़ा । आपने सोचने का एक नया नज़रिया दिया। जी समय ज़रूर परिवर्त्तन ला रहा है। ट्विस्ट बेहद पसंद आया। इसे ज़रूर औरों से सांझा करूँगी।

      Liked by 1 person

  2. सोनिया, बहुत सही लिखा है। अकसर औरतें अपने होंठ सी लेती हैं घर में कलेश न हो यह सोच कर, पर ऐसा होता नही।
    मर्मस्पर्शी कविता!

    Liked by 1 person

  3. उम्दा लेखन। बहुत दर्द है इस कविता में और कटाक्ष भी।
    अहम की जंग में हर बार औरतों को
    चुप रहते देखा है।
    वो हँसती भी है मगर
    क्या वहाँ,जहाँ बात बात पर
    कटघरे बनते हैं,
    उसे खुश रहते देखा है?

    Liked by 2 people

    1. मधुसूदन जी बहुत शुक्रिया। मैंने इस कविता में तकनीक की तरफ ध्यान नही दिया। बस कुछ खयाल थे ज़हन में जिन्हें लिखने की जल्दी थी। कटाक्ष की कोशिश की है। आपने सराहा तो अच्छा लगा। जी यह हमारे समाज का एक सच है और अक्सर एक चुप सौ सुख की कहानी सच नही होती। मैं ऐसा मानती हूं।

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