टी वी की याद में…

शिमला की गर्मियां गर्मियों जैसी होती ही कहाँ है। सूरज बेशक सर चढ़ के बोले, शाम की शीतल बयार पहाडों में होने का एहसास दिला ही देती है।
ऐसे में 1984 की गर्मियों की एक शाम याद है। एक छोटी सी लड़की नीली हरी फ़्रॉक में अपने पापा के पीछे दौड़ रही थी। उसके पापा के हाथों मे उनके नए टी वी की चार टांगे थी। लड़की का बहुत मन था कि वह पकड़े उन टांगों को। मगर पापा कहां मानने वाले थे। उनके आगे एक खान बाबा अपनी पीठ पर टी वी को लादे हुए धीरे धीरे चल रहे थे। वेस्टन कमपनी का टी वी था। गहरे भूरे रंग के किवाड़ वाला। दरवाज़ा खोलो और जादू देखो। लड़की बड़ी उत्साहित थी। अब वह चित्रहार अपने घर पर ही देख सकती थी। उसे पड़ोसियों के यहां जाने की ज़रूरत नही थी। चित्रहार की इस दीवानी के लिए ही तो उसके पापा ने टी वी खरीदा था।
लड़की को समझ नही आ रहा था कि अपने पापा के कदमो से कदम मिलाये या खान बाबा का साथ दे। आखिर नया टी वी तो उनके ही पास था। उसके बिना टांगों का भला कोई मोल था? मगर उसके पापा तो तेज़ी से आगे बढ़ रहे थे। उन्हें टी वी की चिंता ही नही थी। मगर लड़की को वह टी वी अज़ीज़ था। उसने तय किया कि वह खान बाबा के साथ ही चलेगी।
रिज मैदान पर हवा ठंडी थी। लड़की के बाल भी उड़ रहे थे और उसकी फ्रॉक भी बेलाग उड़ रही थी। मगर उसे तो सिर्फ और सिर्फ टी वी की परवाह थी। पापा तो सरपट दौड़ रहे थे। ऐसे में किसी को तो ज़िम्मेदारी से पेश आना था। वह धीरे धीरे टी वी के साथ चलती रही जब तक उसने टी वी को सही सलामत उसकी मंज़िल तक न पहुंचा दिया।
वो ब्लैक एंड वाइट का ज़माना था हालांकि कलर टी वी भी कई गृह प्रवेश कर चुके थे। उन दिनों टी वी पर कमतर ही कार्यक्रम आते थे मगर फिर भी देखने के लिए बहुत कुछ था। आज हम पूरा दिन टी वी चला सकते हैं मगर ज़्यादातर रिमोट के बटन ही दबाते रह जाते हैं। देखते कितना हैं और याद कितना रखते हैं, किसे खयाल है। शायद बहुतायत चीजों का मोल घटा देती है।
रामायण के समय की बात है। वही छोटी लड़की अब थोड़ी बड़ी हो गयी थी। उसका टी वी भी अब रंगदार हो गया था। ऐसे में एक बार वह अपनी दादी के साथ हिमाचल के किसी गाँव में बस से सफर कर रही थी। इतवार का दिन था। दादी पोती सुबह 6 बजे ही बस में बैठ गयी थीं। सफर लंबा था। 9 बजे सारे यात्री कुछ आकुल से होने लगे। लड़की ने देखा कि बस कंडक्टर के साथ कुछ लोगों की बात चीत हुई और थोड़ी देर में बस एक घर के पास जा कर रुक गयी। सब यात्री बस से उतर गए और उस घर की ओर चल पड़े। लड़की की दादी भी उसका हाथ पकड़ कर उसे वहां ले गईं। और उस इतवार को कुछ 50-60 लोगों ने एक अनजान घर में बैठ कर टी वी पर रामायण देखी। यह एक अनोखा अनुभव था। क्योंकि फिर कभी, यूँ, इस तरह का एडवेंचर करने का मौका उसे नही मिला। शायद टी वी और उसके आस पास की दुनिया बदल गयी।
सोचें तो उन दिनों कितना जातिवाद और लिंगभेद था। समता या बराबरी के बारे में बात ही कौन करता था। जागरूकता थी भी भला क्या। मगर फिर भी हम उसे सुनहरा दौर मानते हैं। टी वी भी ब्लैक एंड वाइट थे, प्रौद्योगिकी (टेक्नोलॉजी) के सीमित दायरे थे। फिर भी वो समय अज़ीज़ था।

प्रौद्योगिकी ने हमें बहुत कुछ दिया है पर कहीं न कहीं टेक्नोलॉजी हमे वो दे देती है जिसकी शायद हमें ज़्यादा ज़रूरत नही होती। इतने विकल्प दे देती है कि हम कुछ भ्रमित से हो जाते हैं। इसिलए रिमोट के बटन दबाते रह जाते हैं और देख कुछ भी नही पाते।
वैसे आज भी दुनिया में लगभग 7000 ब्लैक एंड वाइट टी वी मौजूद हैं। आज वो लड़की बड़ी हो गयी है। अब तो पूरा दिन कभी टी वी पर, कभी रेडियो पर तो कभी मोबाइल पर गाने सुन सकती है। सुनती भी है। फिर भी चित्रहार का इंतज़ार उसे हमेशा रहता है।

Image source: pixabay


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