सपनों के शहर हम जाते नही

उड़ने का हौंसला
हम दिखाते नही,
सपनों के शहर
अब हम जाते नही।

बहती हवा
क्यों पेड़ों की शाखाओं
से उलझ गई,
पानी की लहर देखो
उफ़ान से पहले
ही सिमट गई,
उड़ती पतंग भी
अपनी डोर से आके लिपट गई।

पिंजरों से हमें
शिकायत है बड़ी
फिर भी उड़ने का हौंसला
हम दिखाते नही,
सपनों के शहर
अब हम जाते नही।

आसमानों की मुराद
हमें कम तो नही
मगर पैरों को हम
पंक से बाहर लाते नही।
बेलों के सहारे
आ भी जाएं किनारे
तो बांध लेते हैं
उन्ही से हम पांव हमारे।

और इसी तरह
रत्ती भर का फासला लिए
शाखा, डोर, पंक, बेलों का आसरा लिए
हम हकीकत के घर बसाते हैं,
कहते बहुत हैं
मगर ज़्यादा छुपाते हैं।

कैदखानों की आदत सी हो गयी है हमें
इसलिए उड़ने का हौंसला
हम दिखाते नही
सपनों के शहर
अब हम जाते नही,
सपनों के शहर
अब हम जाते नही।

-सोनिया डोगरा

(All rights reserved)


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17 Replies to “सपनों के शहर हम जाते नही”

  1. कैदखानों की आदत सी हो गयी है हमें
    इसलिए उड़ने का हौंसला
    हम दिखाते नही

    क्या खूबसूरत पंक्तियाँ है जी……हर एक शब्द हकीकत को बयान करते है…….दिल ले गए आपके शब्द🙏🙏🙏

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  2. सपनों के शहर हम जाते नहीं, शायद उम्मीदों का दामन छोड़ दिया है।
    ऐसा भी क्या हुआ है जनाब! जो सबने सपने देखना छोड़ दिया है।

    बंद कर लिए है खिड़की और दरवाज़े आशाओं के।
    जाने क्यों आशंकाओं से नाता जोड़ लिया है।

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    1. क्या बात है। मुझे लगता है जिंदगी की मशरूफियात ऐसी है कि वो हमारी बहानाखोरी बन गयी है।

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  3. आसमानों की मुराद
    हमें कम तो नही
    मगर पैरों को हम
    पंक से बाहर लाते नही।
    बेलों के सहारे
    आ भी जाएं किनारे
    तो बांध लेते हैं
    उन्ही से हम पांव हमारे।

    pratyek panktiyan lajwab……chahat hai asmaan chhu lun……..magar ghar se pair niklte nahi hain.

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