1990 में एक बहुचर्चित फ़िल्म आयी थी। नाम था ‘अग्निपथ’ । मैं उस समय मात्र दस साल की थी। सिनेमा घर हम जाते नही थे और दूरदर्शन के सिवा हम कुछ देखते नही थे। इसलिए फ़िल्म कब बड़े पर्दे पे आयी, कब चली गयी, इस बात का न कोई आभास हुआ और न ही जानने की ज़रूरत महसूस हुई।
मगर कुछ सालों बाद इतवार को दिखाए जाने वाली फिल्मों में यह फ़िल्म भी शुमार हो गयी। अब मैं किशोरावस्था में प्रवेश कर चुकी थी और साहित्य की तरफ मेरा रुझान बढ़ गया था। जयशंकर प्रसाद जी की कविता ‘नारी तुम केवल श्रद्धा हो’ को स्कूल की एक नृत्य नाटिका के लिए अपनी आवाज़ दे चुकी थी। प्रेमचंद, महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान को स्कूल की किताबों में पढ़ा था। हालांकि अंग्रेज़ी साहित्य से मेरी पहचान थोड़ी ज़्यादा थी मगर हिंदी में लिखना और हिंदी की कक्षा लगाना मुझे बेहद पसंद था।
खैर अग्निपथ की ओर वापिस मुड़ते हैं। एक इतवार की शाम को दूरदर्शन पे यह फ़िल्म दिखाई जाने वाली थी। स्कूल मे इस बात की चर्चा हुई तो मुझे भी थोड़ी जिज्ञासा हुई। उन दिनों एक और चस्का लगा हुआ था। जहाँ कोई खूबसूरत कविता या पंक्ति पढ़ती, उसे झट से एक डायरी में उतार लेती। उस शाम हम फ़िल्म देखने बैठे।
अग्नि से रंग बिखेरती हुई शाम का दृश्य टी वी स्क्रीन को सुसज्जित कर रहा था। एक पिता और पुत्र की बातचीत से फ़िल्म की शुरुआत हुई। इधर उधर की बातें, बच्चे के मासूम सवाल और पिता के समझदारी वाले जवाब। अक्सर फिल्मों में ऐसे दृश्य देख चुकी थी। उन रोज़ाना की ज्ञान भरी बातों के बीच मे, अचानक, दोनो एकल स्वर में कविता करने लगे। टी वी पे जैसे शब्दों का एक उफ़ान, कुछ तो था उस कविता में।
‘कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ’
मैं फ़िल्म छोड़ डायरी लेने दौड़ी। मगर जब तक सब सामान जुटा पाती, कहानी आगे बढ़ चुकी थी। मुझे याद रहा तो बस एक शब्द, अग्निपथ। कविता फ़िल्म का मूल आधार थी। दोबारा भी सुनने को मिली, लेकिन न मेरे पास पॉज का बटन था और न ही मेरे हाथ तेज़ी से चलते थे, इसलिए पूरा लिख नही पाई। उसके बाद अमिताभ जी की दमदार आवाज़ में कई बार अग्निपथ सुनी।
वहीं से शुरू हुई एक खोज, हरिवंश राय बच्चन की कविताओं की। इंटरनेट का ज़माना नही था, और स्कूल लाइब्रेरी इसके लिए काफी नही थी। मगर एक जगह थी। शिमला की स्टेट लाइब्रेरी। गयी तो वहां भूगोल के प्रोजेक्ट के लिए थी मगर ढूंढ लाई कुछ और ही। कविताओं का संकलन।
वहाँ बच्चन जी की एक कविता थी। उसकी चार पंक्तियां दिल छू गयीं। आज भी उन्हें डायरी में सहेज रखा है।
जीवन की आपा धापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी, यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना, उसमें क्या बुरा भला।
खोजबीन जारी रही। पढ़ना जारी रहा। मगर हिंदी में लिखना बहुत कम हो गया था। अंग्रेज़ी साहित्य बहुत पढ़ रही थी। शायद यह भी कारण था। कॉलेज की लाइब्रेरी में एक दिन दोबारा श्री हरिवंशराय बच्चन से रूबरू हुई। उस समय तक कॉलेज मैगज़ीन में मेरी लिखी हुई अंग्रेज़ी की काफी कविताएं छप चुकी थीं। उस दिन एक बार फिर वही इतवार की शाम याद आ गयी। मैंने एक बार फिर हिंदी कविता की ओर रुख किया। और तब जो पढ़ा, उसने मेरी न जाने कितनी कविताओं को प्रेरित किया। आज आपसे वह ख़ूबसूरत प्रेरणास्रोत साझा कर रही हूँ। मैं हिंदी भाषा मे खुद को कम ही व्यक्त करती हूँ, लेकिन कुछ कविताओं को आप यहाँ पढ़ सकते हैं।
फ़िलहाल पढ़ते हैं, हरिवंशराय बच्चन द्वारा रचित जो बीत गयी सो बात गयी…
जीवन में एक सितारा था
माना वह बेहद प्यारा था
वह डूब गया तो डूब गया
अम्बर के आनन को देखो
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
जो छूट गए फिर कहाँ मिले
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अम्बर शोक मनाता है
जो बीत गई सो बात गई
जीवन में वह था एक कुसुम
थे उसपर नित्य निछावर तुम
वह सूख गया तो सूख गया
मधुवन की छाती को देखो
सूखी कितनी इसकी कलियाँ
मुर्झाई कितनी वल्लरियाँ
जो मुर्झाई फिर कहाँ खिली
पर बोलो सूखे फूलों पर
कब मधुवन शोर मचाता है
जो बीत गई सो बात गई
जीवन में मधु का प्याला था
तुमने तन मन दे डाला था
वह टूट गया तो टूट गया
मदिरालय का आँगन देखो
कितने प्याले हिल जाते हैं
गिर मिट्टी में मिल जाते हैं
जो गिरते हैं कब उठतें हैं
पर बोलो टूटे प्यालों पर
कब मदिरालय पछताता है
जो बीत गई सो बात गई
मृदु मिटटी के हैं बने हुए
मधु घट फूटा ही करते हैं
लघु जीवन लेकर आए हैं
प्याले टूटा ही करते हैं
फिर भी मदिरालय के अन्दर
मधु के घट हैं मधु प्याले हैं
जो मादकता के मारे हैं
वे मधु लूटा ही करते हैं
वह कच्चा पीने वाला है
जिसकी ममता घट प्यालों पर
जो सच्चे मधु से जला हुआ
कब रोता है चिल्लाता है
जो बीत गई सो बात गई
This post is part of # Blogchatter Half Marathon and I am introducing myself through some of the poems, prose pieces, monologues that shaped the writer in me. (image gratitude, Pixabay)
Thank you so much for introducing me to Bachchan Sahab’s poetry. Till date, I had only heard his name and the title of Madhushala. Today, for the first time I read his poem. Hindi literature and poetry is a distant thing for me. But this one has intrigued a poet in me to start reading Hindi Poetry.
I am so glad. Thank you for stopping by.
Life goes on and so shall we.
Thanks for sharing this gem from Harivanshrai ji’s collection while travelling along the time line of your literary life, Sonia.
Thankyou Anagha
Bahut achi abhivyakti. Written so well. Read something in hindi after a long time.
Thank you so much. I do keep thinking of writing more often in Hindi but I am slightly sceptical. This is encouraging.
Apki yeh post maine zor, zor se padhee. Laptop par Hindi likhne ki suvidha nahin hai, isliye maafi chahti hun. Roman script mein Hindi ka yeh sandesa diye jaati hun.
Zor, zor se isliye ki aapke shabdon ke uttam chayan ne post ko ‘kavita paath’ ki shaily mein padhne par majboor kar diya.
Bahut anand aaya. Bacchachn ji ki kavita ko yahan sajha karne ke liye bahut, bahut dhanyawad.
Thank you Arti. So sweet of you to say that.
This post is so heart touching ! And I always love how Amit ji narrates the poems of his father. They are very inspirational.
Yes Chinmayee. Thank you.
बेहद खूबसूरत रचना 👏👏
Thank you.
शुरुआत में अग्निपथ में आवाज ऐसा की हॉल गूंजता था। बाद में आवाज परिवर्तित किया गया। कल दूरदर्शन की बात ही अलग थी। कभी झिलमिल कभी क्लियर। रामायण शुरू होने से पहले अगरबत्ती दिखाना। एक ही जगह बैठ बहुत सारे लोगों का टीवी देखना। वो दौर ही कुछ और था। आपकी लेखनी पुराने खयालों में ले गई।
Ji. Kuch alag hi samay tha woh.