खुले मैदानों से निकलकर
फ़हरिस्तों मे कैद हो गई
ज़िन्दगी न जाने कब
आंकड़ों मे खो गई
सीलन भरी दीवार पर
धूप की लकीर खींचा करती थी
ज़िन्दगी कभी थोड़े मे ही
खुशियां सींचा करती थी
आज बेहिसाब बकिट लिस्टों के बारे मे हो गई
ज़िन्दगी न जाने कब आंकड़ों मे खो गई
हर एक कहानी पर दम भरा करती थी
किताबों के पन्नों मे सफ़र किया करती थी
आज शत प्रतिशत नंबरों की दीवानी हो गई
ज़िन्दगी न जाने कब आंकड़ों मे खो गई
ख्वाबों से निकलकर ख्वाहिशों मे सिमट गई
घरौंदों को छोड़ मकानों से लिपट गई
साज सामानों की गिनती मे कैद हो गई
ज़िन्दगी न जाने कब आंकड़ों मे खो गई
संदूक मे छिपी माँ की पुरानी साड़ी मे
हर दीवाली पे सजा करती थी
आज अलमारी मे पड़े
अनगिनत डिजाइनर कपड़ो मे पिरो गई
ज़िन्दगी न जाने कब आंकड़ों मे खो गई
कभी कभी दादी-नानी की दिलाई
गुल्लक मे खनकती थी
मिट्टी मे भी चाँदी के सिक्कों सी
चमकती थी
आज नोटों से भरी तिजोरियों मे भी
तिशनगी सी हो गई
ज़िन्दगी न जाने कब आंकड़ों मे खो गई
त्यौहारों पर तो वह
बाज़ार की हलचल बन खिलती थी
मिठाई के डिब्बों मे
रसगुल्लों सी मिलती थी
अब डाईबिटिज की मशीनों
व शेयर मार्केट के व्यापारों की हो गई
ज़िन्दगी न जाने कब आंकड़ों मे खो गई
मित्रों की तकदीरों पर
दोस्ती की लकीर खींचती थी
ज़िन्दगी सिर्फ चंद दोस्तों की ही तस्वीर खींचती थी
आज मीलों लम्बी फ्रेंड लिस्ट के बारे मे हो गई
ज़िन्दगी न जाने कब आंकड़ों मे खो गई
खुद को हर बार सिद्ध करने की ज़िद्द
एक नही हर पहाड़ चढ़ने की ज़िद्द
केवल दौड़ की होड़ के बारे मे हो गई
यह फ़हरिस्तों वाली ज़िन्दगी
कहीं आंकड़ों मे खो गई
lovely composition..and so apt in the current age ‘ज़िन्दगी न जाने कब आंकड़ों मे खो गई’ indeed!
Thank you!
Bilkul sahi baat…. bahut Gehri aur soche wali baat 💖
Thank you for reading dear!!
beautiful… So real… This is actually happening… I think most of us are having this kind of life… And we all miss those good old days of our childhood
Thank you for sharing your thoughts ma’am!
Beautiful composition! And thought provoking. 🙂
Thank you Tarang for stopping by and sharing your thoughts!